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शकील बदायूंनी यौम ए वफात: ए मोहम्मत तेरे अंजाम पे रोना आया

by Badaun Today Staff
April 21, 2020
in विशेष
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शकील बदायूंनी यौम ए वफात: ए मोहम्मत तेरे अंजाम पे रोना आया
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बदायूं। ‘ए मोहम्मत तेरे अंजाम पे रोना आया, जाने क्यों आज तेरे नाम पे रोना आया’ जैसी मशहूर गजल लिखने वाले शकील बदायूंनी 20 अप्रैल को इस दुनिया को अलविदा कह गए थे। दुनिया भर में बदायूं का नाम रोशन करने वाली शकील एक ऐसा नाम है जो अमर हो चुका है।

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बेगम अख़्तर के नाम से मशहूर अख्तरी बाई फ़ैज़ाबादी की आवाज में एक गजल ‘ए मोहम्मत तेरे अंजाम पे रोना आया, जाने क्यों आज तेरे नाम पे रोना आया’ उनकी ग़ज़ल अदायगी का लगभग पर्याय ही बन गयी थी। उनके चाहने वाले किसी भी महफिल में बिना यह ग़ज़ल सुने सन्तुष्ट नहीं होते थे। उनसे मिलने-जुलने वाले अधिकांश लोगों का यहाँ तक कहना है कि बेगम के लिए यह ग़ज़ल नहीं थी, बल्कि उनके कन्सर्ट का नेशनल ऐन्थम थी। हर एक व्यक्ति, जो उनकी आत्मीयता के घेरे में आता था- किसी महफिल में जाने से पहले हमेशा मजाक में उनसे कहता था कि नेशनल ऐन्थम के अलावा, आप आज क्या-क्या गायेंगी? या बेगम साहिबा महफिल भले ही कजरी और दादरा की हो, लोग आपसे नेशनल ऐन्थम गवाये बिना नहीं मानेंगें।

लेकिन इस गजल को लिखने वाले शकील बदायूंनी ही थे, शकील की गजल बेगम अख्तर को बेहद पसंद थीं। उनके बीच गहरी दोस्ती थी। बेगम अख़्तर की शिष्या शांति हीरानंद बताती हैं कि एक बार जब वो मुंबई सेंट्रल स्टेशन से लखनऊ के लिए रवाना हो रही थीं तो उनको स्टेशन छोड़ने आए शकील बदांयूनी ने उनके हाथ में एक चिट पकड़ाई। रात को पुराने ज़माने के फ़र्स्ट क्लास कूपे में बेगम ने अपना हारमोनियम निकाला और चिट में लिखी उस ग़ज़ल पर काम करना शुरू किया। भोपाल पहुंचते पहुंचते ग़ज़ल को संगीतबद्ध किया जा चुका था। एक हफ़्ते के अंदर बेगम अख़्तर ने वो ग़ज़ल लखनऊ रेडियो स्टेशन से पेश किया और इस तरह यह गजल मशहूर हो गयी।

इस मशहूर गजल को लिखने वाले उत्तर प्रदेश के बदांयू के मोहल्ला वेदो टोला में सोखता खानदान में तीन अगस्त 1916 को जन्में शकील अहमद उर्फ शकील बदायूंनी ने अपनी स्नातक की पढाई शहर में की। उन्होंने 1936 में अलीगढ़ मुस्लिम विश्‍वविद्यालय में अपना दाखिला कराया। इसके बाद वो मुशायरों में हिस्सा लेने लगे। अलीगढ़ में पढ़ाई पूरी करने के बाद शकील बदायूंनी सरकारी नौकरी करने लगे। मगर उनका दिल तो शेरों-शायरी के लिए बना था। वर्ष 1942 में दिल्ली पहुंचे, जहां उन्होंने आपूर्ति विभाग में आपूर्ति अधिकारी के रूप में अपनी पहली नौकरी की। इस बीच उनका मुशायरों में शामिल होना लगातार बना हुआ था, एक मुशायरे में उनकी कही गजल ‘गम-ए-आशिक से कह दो कि आम तक ना पहुचें, मुझे खौफ है कि तोहमत मेरे नाम तक ना पहुचें’ बेहद चर्चित हुई।

अपनी शायरी से मिलती शोहरत से उत्साहित शकील बदयूंनी ने उसी को अपना करियर बनाने का फैसला किया और आपूर्ति अधिकारी की नौकरी छोड़कर 1946 में दिल्ली छोड़कर सीधे मुंबई पहुंच गए, जहां उनकी मुलाकात सबसे पहले उस वक्त के मशहूर निर्माता ए.आर. कारदार साहब और महान संगीतकार नौशाद से हुई। इसके कुछ समय बाद नौशाद के कहने पर शकील बदायूंनी ने सबसे पहले ‘हम दिल का अफसाना दुनिया को सुना देंगे, हर दिल में मोहब्बत की आग लगा देंगे’ गीत लिखा। नौशाद को यह गाना बहुत पसंद आया तो उन्होंने कारदार साहब की अगली फिल्म ‘दर्द’ के लिए साइन कर लिया। 1947 में रिलीज हुई फिल्म ‘दर्द’ के गीत ‘अफसाना लिख रही हूं’ की सफलता के बाद बॉलीवुड में शकील बदायूंनी का नाम और फेमस हो गया।

शकील बदायूंनी के फिल्मी सफर पर अगर एक नजर डाले तो पाएंगे कि उन्होंने सबसे ज्यादा फिल्में संगीतकार नौशाद के साथ ही की। उनकी जोड़ी प्रसिद्ध संगीतकार नौशाद के साथ खूब जमी और उनके लिखे गाने जबर्दस्त हिट हुए। शकील बदायूंनी और नौशाद की जोड़ी वाले गीतों मे कुछ हैं तू मेरा चांद मैं तेरी चांदनी, सुहानी रात ढल चुकी, ओ दुनिया के रखवाले, मन तड़पत हरि दर्शन को, दुनिया में हम आए हैं तो जीना ही पडे़गा, दो सितारों का जमीं पे है मिलन आज की रात, मधुबन में राधिका नाचे रे़, जब प्यार किया तो डरना क्या, नैन लड़ जइहे तो मन वा में कसक होइबे करी, दिल तोड़ने वाले तुझे दिल ढूंढ रहा है, तेरे हुस्न की क्या तारीफ करूं, दिलरूबा मैंने तेरे प्यार में क्या-क्या न किया, कोई सागर दिल को बहलाता नहीं प्रमुख हैं।

शकील बदायूंनी को अपने गीतों के लिए तीन बार फिल्म फेयर अवॉर्ड से नवाजा गया। इनमें वर्ष 1960 में प्रदर्शित ‘चौदहवी का चांद’ के ‘चौदहवीं का चांद हो या आफताब हो’, वर्ष 1961 में ‘घराना’ के गीत हुस्न वाले तेरा जवाब नहीं और 1962 में बीस साल बाद में ‘कहीं दीप जले कहीं दिल’ गाने के लिए फिल्मफेयर अवॉर्ड से सम्मानित किया गया। फिल्मी गीतों के अलावा शकील बदायूंनी ने कई गायकों के लिए गजल लिखी। शकील बदायूंनी ने नौशाद अली, रवि, हेमंत कुमार जैसे अज़ीम मौसीकार के साथ काम किया. इनके गीतों को मौहम्मद रफी, तलत महमूद, लता मंगेशकर, मुकेश, शमशाद बेगम, महेंद्र कपूर, जैसे मशहूर गुलूकारों ने इनके गीत को आवाज़ देकर अपनी पहचान कायम की।

निदा फ़ाज़ली की किताब `चेहरे` में शकील से जुड़ा एक किस्सा है। वाणी प्रकाशन द्वारा प्रकाशित इस किताब के अपने आलेख में निदां साहब लिखते हैं, ”मैंने पहली बार उन्हें ग्वालियर में मेले के मुशायरे में देखा और सुना था। गर्म सूट और टाई, खूबसूरती से संवरे हुए बाल और चेहरे की आभा से वे शाइर से अधिक फिल्मी कलाकार नज़र आते थे। मुशायरा शुरू होने से पहले वे पंडाल में अपने प्रशंसकों को आटोग्राफ से नवाज़ रहे थे। उनके होठों की मुस्कुराहट कलम की लिखावट का साथ दे रही थी। शकील को अपने महत्व का पता था। वे यह भी जानते थे कि उनकी हर हरकत और इशारे पर लोगों की निगाहें हैं।”

इस मुशायरे में हजरत दाग़ के अंतिम दिनों के प्रतिष्ठित मुकामी शाइरों में हजरत नातिक गुलावटी, को भी नागपुर से बुलाया गया था। लंबे पूरे पठानी जिस्म और दाढ़ी रोशन चेहरे के साथ वो जैसे ही पंडाल के अंदर घुसे, सारे लोग सम्मान में खड़े हो गए। शकील इन बुजुर्ग के स्वभाव से शायद परिचित थे, वे उन्हें देखकर नातिक साहब का ही एक लोकप्रिय मत्ला पढ़ते हुए उनसे हाथ मिलाने के लिए आगे बढ़ेः

वो आंख तो दिल को लेने तक बस दिल की साथी होती है

फिर लेकर रखना क्या जाने, दिल लेती है और खोती है….

लेकिन मौलाना नातिक इस प्रशंसा स्तुति से खुश नहीं हुए। उनके माथे पर उन्हें देखते ही बल पड़ने लगे। वे अपने हाथ की छड़ी को उठा-उठा कर किसी स्कूली उस्ताद की तरह भारी आवाज में बोल रहे थे — बर्खुरदार मियां शकील, तुम्हारे तो पिता भी शाइर थे और चाचा मौलाना जिया उल कादरी भी उस्ताद शाइर थे। तुमसे तो छोटी छोटी गलतियों की उम्मीद हमें न थी। पहले भी तुम्हें सुना-पढ़ा था मगर कुछ दिन पहले ऐसा महसूस हुआ कि तुम भी उन्हीं तरक्की पसंदों में शामिल हो गए हो जो रवायत और तहजीब के दुश्मन हैं।

शकील इस अचानक आक्रमण के लिए तैयार नहीं थे। वे घबरा गए लेकिन बुजुर्गों का सम्मान उनके स्वभाव का हिस्सा था। वे सबके सामने अपनी आलोचना को मुस्कुराहट से छुपाते हुए उनसे पूछने लगे “हज़रत आपकी शिकायत वाज़िब है लेकिन मेहरबानी करके गलती की निशानदेही भी कर दें तो मुझे उसमें सुधारने में सुविधा होगी। आप फरमाएं मुझसे कहां भूल हुई है?”

”बर्खुरदार आजकल तुम्हारा एक फिल्मी गीत रेडियो पर अक्सर सुनाई दे जाता है, उसे कभी कभार मजबूरी में हमें भी सुनना पड़ता है, उसका पहला शेर यों हैः

चौहदवीं का चांद हो या आफताब हो

जो भी हो तुम खुदा की कसम लाजवाब हो ……….
 

मियां इन दोनों मिसरों का वजन अलग अलग है। पहले मिसरे में तुम लगा देने यह दोष दूर किया जा सकता था। कोई और ऐसी गलती करता तो हम नहीं टोकते, मगर तुम तो हमारे दोस्त के लड़के हो, हमें अज़ीज़ भी हो, इसलिए सूचित कर रहे हैं। बदायूं छोड़कर मुंबई में भले ही बस जाओ मगर बदायूं की विरासत का तो निर्वाह करो।”

शकील अपनी सफाई में फिल्मों में संगीत और शब्दों के रिश्ते और उनकी पेचीदगी को बता रहे थे। उनकी दलीलें काफी सूचनापूर्ण और उचित थीं, लेकिन मौलाना नातिक ने इन सबके जवाब में सिर्फ इतना ही कहा — मियां हमने जो मुनीर शिकोहाबादी और बाद में मिर्जा दाग़ से सीखा है उसके मुताबिक तो यह गलती है और माफ करने लायक गलती नहीं है। हम तो तुमसे यही कहेंगे कि ऐसे पैसे से क्या फायदा जो रात दिन फ़न की कुर्बानी मांगे।

उस मुशायरे में नातिक साहब को भी शकील के बाद अपना कलाम पढ़ने की दावत दी गई थी। उनके कलाम शुरू करने से पहले शकील ने खुद माइक पर आकर कहा था, हजरत नातिक इतिहास के जिंदा किरदार हैं। उनका कलाम पिछली कई नस्लों से ज़बान और बयान का जादू जगा रहा है। कला की बारीकियां समझने का तरीका सिखा रहा है और मुझे जैसे साहित्य के नवागंतुकों का मार्ग दर्शन कर रहा है। मेरी गुजारिश है आप उन्हें उसी सम्मान से सुनें जिसके वे अधिकारी हैं।”

ऐसे थे शकील बदायूंनी और ऐसी थी उनके मन में बुजुर्गों के प्रति इज्जत। शायद उन्होंने अपने इस शेर में किसी बुजुर्ग को ही याद किया होगा। शकील ने अपने गजल, शायरी, गीतों के दम पर सात समुन्दर की ऐसी छलांग मारी है कि उनका नाम इतिहास में अमिट हो गया।

क्या कीजिए शिकवा दूरी का, मिलना भी गजब हो जाता है,
जब सामने वो आ जाते हैं, अहसासे अदब हो जाता है ।
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